सिद्धो - कान्हू जयंती विशेष : शहादत को ताजा कर देती है सिद्धो- कान्हू जयंती
आदिवासी समाज के लोग सिद्धो -कान्हू को किसी भगवान से कम नही मानते
Sahibganj News : संताल हूल के महानायक वीर शहीद सिद्धो - कान्हू की जयंती बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गाँव के सिद्धो- कान्हू जन्मस्थली में कोविड19 गाइडलाइन का पालन करते हुए आज सुबह से ही मनाया जा रहा है।जहां पारम्परिक तरीके से पूजा - पाठ किया जा रहा। सीद्धो- कान्हू पार्क व सिद्धो - कान्हू के आवास को आकर्षक तरीके से सजाया गया है।
इस बार नही दिख रहा है चहल-पहल
बता दें कि कोरोना के दूसरी लहर को देखते हुए इस बार लोगों का जमावड़ा नही हो रहा है। बरहेट प्रखण्ड में हर बार लाखों की संख्या में सिद्धो - कान्हू के जन्म भूमि उनके जन्म दिवस के अवसर पर पहुंचते थे।ज्ञात रहे कि पूर्व में तरह-तरह के दर्शनीय कार्यक्रम, रात्री भोज, दिनाजपुर आर्केस्ट्रा आदि कार्यक्रम का आयोजन किया जाता था। लेकिन बढ़ते करोना को देखते हुए इस बार भी सभी कार्यक्रमों को स्थगित किया गया है।
सोशल डिस्टेंस का पालन करते हुए कुछ ही लोगों को सिद्धो - कान्हू के प्रतिमा पर माल्यार्पण करके उनके जन्म दिवस के अवसर पर श्रद्धांजलि देने की अनुमति दी गई है।
क्यों मनाया जाता है सिद्धो - कान्हू जयंती
अंग्रेज महाजनों एवं शोषण के खिलाफ आन्दोलन और वीर शहीदों के बलिदान की कर्मभूमि है भोगनाडीह। सिद्धो - कान्हू की जयंती उनके शहादत की यादों को ताजा कर देती है।
आदिवासी समाज के लोगों के लिए शोषण व अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए सिद्धो - कान्हू ने संथाल हूल का शंखनाद किया था। आदिवासी समाज के लोग सिद्धो - कान्हू को किसी भगवान से कम नही मानते।
सिद्धो- कान्हू ने देश की संस्कृति व सम्मान की रक्षा कर संथाल परगना को गौरवान्वित करने का काम किया। दोनों भाइयों ने आदिवासी तथा गैर आदिवासीयों को अंग्रेज व महाजनों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी।
ब्रिटिश हुकूमत की जंजीरों को तार - तार करने वाले इन वीर सपूतों के शहादत की याद में जयंती समारोह प्रत्येक साल 11 अप्रैल को मनाया जाता है। इस समारोह में देश के कई प्रांतों से भोगनाडीह पहुंचने वाले विद्वान, लेखक, इतिहासकार, शहीदों के इतिहास को कुरेद कर उनके जीवन वृतांत पर प्रकाश डाल कर उनके बलिदान की याद ताजा कर जाते हैं।
बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में चुनू मुर्मू के घर सिद्धो का जन्म 1820 ई. को और कान्हू का जन्म 1832 ई. में हुआ था। उनके दो सहोदर भाई चन्द्राय मुर्मू तथा भैरव मुर्मू भी थे। इन देशभक्तों ने अंग्रेजों के अत्याचार का विरोध करने व आजादी का परचम लहराने के लिए 30 जून 1853 को पंचकठिया में बरगद के पेड़ के नीचे संथाल हूल का बिगुल फूंका था।
1855-56 का संथाल विद्रोह संपूर्ण एशिया महादेश में विख्यात हुआ था। आज भी वर्षो पुराना बरगद का पेड़ पंचकठिया में ऐतिहासिक हूल क्रांति के गवाह के रूप में मौजूद है। जो हमें हर दिन, हर पल उनकी शहादत की याद दिलाता है।
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By : Shahbaz Alam
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