विश्व पर्यावरण दिवस पर भूवैज्ञानिक सह पर्यावरणविद डॉ. रणजीत कुमार सिंह का विशेष आलेख


साहिबगंज : विज्ञान और गणित की तरह पर्यावरण भी अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम का हिस्सा बने। प्राथमिक कक्षाओं से ही विधार्थियों को इसके महत्व का ज्ञान और उनकी जवाबदेही बतानी होगी।

विश्व पर्यावरण दिवस पर भूवैज्ञानिक सह पर्यावरणविद डॉ. रणजीत कुमार सिंह का विशेष आलेख

पर्यावरण सरंक्षण की प्रासंगिकता सिर्फ पर्यावरण दिवस 05 जून के इर्द - गिर्द न घूमे, बल्कि इसके लिए वार्षिक अभियान की भी जरूरत है। 21वीं सदी के लिये पर्यावरण सरंक्षण एक चुनौती पूर्ण कार्य है।

जल संकट की विभत्स स्थिति से हम गुजरने वाले हैं। अगर समय रहते नहीं चेते, तो आने वाले समय में शुद्ध वायु , शुद्ध जल मयस्सर ही नही होंगे। ये कहते हुए हमें गर्व की अनुभूति होती है कि साहिबगंज की धरती को प्रकृति ने अपने सर्वोत्तम आभूषणों से संजोया है।

अफ़सोस, हमने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए प्राकृतिक संसाधनों का मनचाहा दोहन - शोषण किया है। हमने इस खूबसूरत धरा की हरियाली, अकूत खनिज संपदा और भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन कर क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और पारिस्थितिकी को बदल कर रख दिया है।


पर्यावरण संरक्षण के लिए प्लास्टिक व पॉलीथिन फ्री साहिबगंज बनाने की ज़रूरत है। इसके लिए एनजीओ व अन्य शैक्षणिक व सामाजिक संस्थानों को जोड़ कर अभियान चलाने की भी ज़रूरत है।

जिला को प्लास्टिक व पॉलीथिन, थर्मोकोल फ्री जोन बनाने में जिला प्रशासन व वन्य विभाग व एनएसएस महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सखुआ पत्ता प्लेट का उपयोग कर थर्मोकोल व प्लास्टिक की इंट्री रोकी जा सकती है।

सारे वैज्ञानिक जानते और कहते भी हैं - यदि हम सृष्टि को इसी प्रकार खोखला करते गए तो 2050 तक "सृष्टि पर पीने लायक पानी नहीं होगा, रसायनिक खादों से भूमि बंजर हो जाएगी।


जिससे भुखमरी फैलेगी, पृथ्वी का तापमान बढ़ने से जल स्तर बढ़ेगा। जिससे लगभग 50% देशों की भूमि समुद्र में डूब जाएगी।  लगातार बढ़ते मांसाहार से जीवो के विलुप्त होने पर प्रकृति संतुलन बिगड़ेगा, जिससे प्रकृति के वातावरण में और ऋतु में भारी परिवर्तन आएगा।

जो नकारात्मक ही होगा ना कि सकारात्मक। बता दें कि विश्व में 90% पीने लायक जल की पूर्ति नदियों द्वारा की जाती है। परंतु यह दुःखद है कि बड़े - बड़े उद्योग - कारखानों  का कचरा नदियों में प्रवाहित किया जाता है। जिससे पीने लायक जल की समस्या उत्पन्न होगी।

लगातार जंगलों को काटने से सृष्टि के वातावरण में प्राण वायु का प्रतिशत कम होगा, जिससे वर्षा कम होगी,  अनाज का उत्पादन कम होह और वातावरण में अपान वायु के बढ़ने से विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म होगा।


पर मुझे तो इस बात की शंका होती है की यदि मानव इन सब चीजों को जानता है, तो मानता क्यों नहीं ? आख़िरकार आने वाले समय में उन्ही के वंशजों को तो जीना है। क्या अपने पुत्र - पुत्रियों के लिए हम सब ऐसे विश्व का निर्माण करने जा रहे हैं, जहां पीने के पानी और भोजन हेतु अनाज की समस्या हों?

पर एक बात याद रखिए जब 2050 में यह सब समस्याएं मानवता के सामने खड़ी होंगी, तब आपको मजबूरन इस समस्त आधुनिकता का त्याग करना पड़ेगा।

"ज्ञानी हैं तो समझ कर,  मानव आशक्त हैं तो थक कर, और यदि अहंकारी हैं तो फिर प्रकृति से डर कर" इस आधुनिकता पर विराम लगना निश्चित है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम समझकर, थककर या डर कर, किस मार्ग से इस को रोकना चाहते हैं?


अपनी बात को इन पंक्तियों के साथ अंत करता हूं

मदमत्त व्यक्ति राह पर, मन मर्यादा लाघें जाए,
तो कोई नहीं सामर्थ्यवान, जो पतन से उसे बचाए। 

डॉ.रणजीत कुमार सिंह
भूवैज्ञानिक सह पर्यावरणविद
साहिबगंज महाविद्यालय, साहिबगंज

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