क्यों सिर्फ महिलाएं ही : पुरुष क्यों नहीं?


मस्कार पाठकों !
मैं अमृता तिवारी, एक बार फिर आप लोगों के सामने अपने एक नए लेख के साथ हाजिर हूं।

क्यों सिर्फ महिलाएं ही : पुरुष क्यों नहीं?


पुरुषों को हम कब उनके अच्छाइयों के लिए उन्हें सम्मानित करते हैं?

सवाल बड़ा आसान है मगर इसका जवाब ढूंढने के लिए हममें से अधिकतर लोग इंटरनेट का सहारा लेंगे और मुझे बता देंगे पुरुष दिवस कब है। मगर मुझे वह जवाब नहीं चाहिए। मेरा बस इतना मानना है कि जहां हम महिलाओं की इतनी बात करते हैं, महिलाओं के भावनाओं के बारे में इतनी बात करते हैं, महिलाओं की उपस्थिति इतनी जरूरी समझते हैं तो पुरुषों का क्यों नहीं?

जब भी एक बिटिया की विदाई होती है तो हमें मां के गम, मां के आंसू सब दिखाई देते हैं, मगर हम उस पिता को नजरअंदाज कर देते हैं जो अपने कलेजे पर पत्थर रख अपनी बेटी को विदा करते हैं। उस भाई को नजरअंदाज कर देते हैं जो कामों में व्यस्त रहकर अपने उदासी को छुपाने की कोशिश करते है। हम भूल जाते हैं कि वह भी अपने दिल का टुकड़ा किसी अनजान इंसान को सौंप रहे हैं।

आज भी अधिकतर परिवारों में पुरुषों को बस घर का खर्च चलाने का एक माध्यम माना जाता है। नौजवान बेटा घर में बैठा हो तो हर 4 लोग उसे उसके निकम्मेपन का ताना देते हैं। वही बेटा अगर कमाने के लिए शहर से बाहर, परिवार से दूर है तो उसे मतलबी होने का ताना सुनना पड़ता है।

हम यह भूल जाते हैं कि ये वही बेटे हैं जो हर तीज त्योहारों की तैयारियां करते थे, बाजार से सामान लाना, सारी व्यवस्था को संभालना और इतना करने के बाद भी वही पुराने कपड़ों में तैयार होकर घर की महिलाओं के साथ त्योहार का आनंद लेते थे।


हमें इस बात को समझने की आवश्यकता है हर बेटा कंस नहीं होता, आज भी श्रवण जिंदा है। बस जरूरत है हमें उन्हें मानसिक और भावनात्मक तौर पर समझने की और उनका सहारा बनने की। भारत में आज भी आत्महत्या दर में पुरुषों की संख्या हमेशा से ज्यादा रही है।

मुझे नहीं पता इसका वास्तविक कारण क्या है मगर मैं इतना जरूर जानती हूं कि अगर हम अपने - अपने घरों से इसकी शुरुआत करें तो कम से कम हमारे अपने इन मुश्किलों से बचे रहेंगे। हमें जरूरत है उनसे आज भी एक भावनात्मक जुड़ाव बनाए रखने की और उन्हें हर कदम पर समझने की।

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amrita tiwari

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