वर्तमान किसान आंदोलन सिर्फ कहने को अराजनीतिक है
वर्तमान किसान आंदोलन सिर्फ कहने को अराजनीतिक है परन्तु सम्पूर्ण व्यवस्था,सोच व कार्यकर्ता राजनीतिक हैं-प्रो सुबोध झा
बात न तो राजनीतिक है और न ही किसानों की। बात सामान्य बुद्धि–विवेक की है, जिसे भारत के आम नागरिकों को जानने की आवश्यकता है। यह तो हुई न वही बात, कि मांग ऐसी करो जो कभी पुरी ही न की जाए।यह सोच किसकी हो सकती है?
बस उसी की जो सरकार को अस्थिर करने की मंशा लिए सड़क पर उतरकर जनमानस को उद्वेलित कर अपने चंगुल में फंसाने का काम करता है, ताकि इसका फायदा आम चुनाव में मिल सके। अगर ऐसा नहीं है तो फिर चुनाव के ठीक पहले ही आन्दोलन क्यों शुरू किया जाता है?
बस यही स्थिति है वर्तमान किसान आंदोलन की, जो किसान कम विपक्ष का कार्यकर्ता ज्यादा लगता है। बड़ा मजबूर होकर लिखना पड़ रहा है कि भारतीय किसान इतना उत्तेजित व उग्र हो ही नहीं सकता कि समस्त घेराबंदी को रौंदते हुए सरकारी संपत्ति को तहस-नहस कर दे।
भारतीय किसान तो स्वभावत: शांत होते हैं।भारत ने तो यह भी देखा है कि ज्यादा क़र्ज़ होने पर या दुःख की स्थिति में यहां तक कि निरीह किसान आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो गए हैं। परन्तु सड़क जाम कर अराजकता फैलाते कभी नहीं देखा गया।
हमारे देव स्वरूप अन्नदाता किसी के शिकार बनते जा रहे हैं। क्योंकि बहुत ऐसी मांगें हैं जिसे पुरी करने की दूर–दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आती है। पिछले किसान आंदोलन में भी देखा गया कि कनाडा सरकार तथा खालिस्तान समर्थकों का पूरा कुनबा पूरी तरह से इसमें शामिल था। यह तो सही बात नहीं है न?
बात भारत के किसानों की नहीं है। यह भारत की सरकार को अस्थिर करने का एक असफल प्रयास है, जिसमें विदेशी फंडिंग के साथ प्रमुख विपक्षी दलों का सिर्फ हाथ ही नहीं पुरा शरीर भी है। भला कौन बड़े–बड़े ट्रकों व ट्रैक्टरों में डेस्ट्रायर और प्रोटेक्टर लगा कर आन्दोलन करता है?
गर मांगों की बात करें तो बहुत सी मांग ऐसी हैं, जिसे यदि मान लिया गया तो दस गुणा मंहगाई बढ़ सकती है। पहली बात MSP की है तो, यह पहले पंजाब सरकार से ही मांग करो न भाई, जिसने खुद सिर्फ दो को ही स्वीकारा है और बाकी को खारिज कर दिया है।
मगर नहीं, उसकी नियत तो केन्द्र सरकार को ही बदनाम करने की है। क्योंकि कल हमने एक किसान नेता को यह कहते सुना कि राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रधानमंत्री मोदी के लोकप्रियता का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ गया है।
उसे गिराना चाहते हैं। बस यही तो विपक्ष की मंशा है। क्योंकि यदि मांगें मान ली जाए, तो इसका अर्थव्यवस्था पर काफी बोझ बढ़ेगा और न माना जाए तो केन्द्र सरकार किसान विरोधी घोषित की जाएगी। बस यही तो सत्य है। मैं कहता हूं कि सरकार MSP का वैश्विक स्तर लगभग 18/- से कहीं अधिक, लगभग 22/- तो दे ही रही है।
लेकिन जो मांग हो रही है वो दुनिया की कोई सरकार पुरा नहीं कर सकती। मानने पर मंहगाई चरम पर होगी। सब्सिडी में सरकार उतना वहन कर ही नहीं सकतीं। कीमत में वृद्धि करना ही एकमात्र उपाय रह जाएगा, जो कोई भी सरकार नहीं चाहेगी।
दूसरी बात है की क्या करोड़ों किसानों (60वर्ष) को दस हजार प्रति माह पेंशन योजना लागू करना संभव है? मनरेगा के तहत् 700/- प्रति दिन 200 दिन की मजदूरी, बिजली फ्री, खाद, बीज, डीजल, प्रत्येक चीज पर भारी सब्सिडी देना संभव है क्या? नहीं, एकदम नहीं। सरकार की बात क्या, देश दिवालिया हो जाएगा। जबकि उतना सरकारी बजट नहीं है।
साथ ही सरकारी बजट स्वयं घाटे की वित्त व्यवस्था पर आधारित है। आप ध्यान दें कि यदि मांग की MSP को माना जाए तो क्या आप सौ रूपया किलो आटा खरीदने को तैयार हैं? बजट का भार तो आम नागरिक पर ही न पड़ेगा। सरकार तो आपके टैक्स से ही न सब्सिडी देती है। इसलिए इस आन्दोलन को सरकार समझ रही है।
सिर्फ चुप है कि कहीं कोई खून–खराबा न हो जाए। आगे चुनाव है। लेकिन जनता तो सब समझती है।इसी कारण से इस बार किसान आंदोलन में सभी किसान गुट शामिल नहीं हैं। अब देखना दिलचस्प होगा की "दिल्ली चलो मोर्चा" कितना सफल हो पाता है?
प्रोफेसर सुबोध झा
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