जाति–धर्म में बंटे समाज की दिशा व दशा से आहत एक कवि मन की व्यथा : प्रोफेसर सुबोध झा की कलम से, "ऐ सूरज मजहब तो बता"!


 जाति–धर्म में बंटे समाज की दिशा व दशा से आहत एक कवि मन की व्यथा : प्रोफेसर सुबोध झा की कलम से, "ऐ सूरज मजहब तो बता"!

जाति–धर्म में बंटे समाज की दिशा व दशा से आहत एक कवि मन की व्यथा : प्रोफेसर सुबोध झा की कलम से, "ऐ सूरज मजहब तो बता"!

सबकी बस एक कहानी, सूरज–मिट्टी, फूल व पानी


तुझे आज फैसला करना होगा,

बस एक पक्ष ही धरना होगा,


सुनो सूरज, मिट्टी, फूल, व पानी,


तुझे स्वयं से ही तो लड़ना होगा।


तू छिपकर अंधेरा करता;

तू उठकर सवेरा करता;


सारे जहां को रौशन करता;

सारी सृष्टि का सृजन करता।


फंस गया है तू अब तो बता?

ऐ सूरज मजहब तो बता?


मानव मिट्टी से ही बना है;

पर खुद पे वो खुद ही तना है।


कोई तुझपे मकबरे बनाता;

कोई जलकर तुझमें समाता;


जाति कौन कृषक है भाता?


हर माटी सोना उपजाता।

फंस गया है तू, अब तो बता?

ऐ मिट्टी मज़हब तो बता?


मूर्तियों का मान बताता;

मजारों की शान बढ़ाता;


शहीदों को सम्मान दिलाता;

फंस गया है तू, अब तो बता?

ऐ फूल मजहब तो बता?


किस रंग में रंगा है तू,

किस धर्म से बंधा है तू।


नित सुबह चर्च को जाता,

मस्जिद में तू वजू कराता,


महादेव को सर से नहाता।

प्यास बुझाए इमाम पादरी,


आश लगाए अपने पुजारी,

क्यों बन गए सबके मदारी?


फंस गया है तू अब तो बता?

ऐ पानी मजहब तो बता?


कौन बुरा है कौन भला है?

यही तो बस पूछने चला है?


जब हर जुबां पे तेरा ही नाम है;


सबको संभाले तेरा ही काम है;


जब तेरे बिना  मानव है बेचारा;

हर जाति धर्म का तू है सहारा;


फिर मानव क्यों बनता अबोध?


हर जाति धर्म से पूछता "सुबोध"?


प्रकृति कहां कभी विभेद है करता;

सीखो इनसे सामाजिक समरसता।


प्रोफेसर सुबोध

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